उँर्दू का तो था ही और हिन्दीँ का भी आ गया(बच्चन की जन्मशती पर विशेष)

By तेज़ धार
हरिवंश राय बच्‍चन के जीवन की कुछ महत्‍वपूर्ण घटनाओं में से एक घटी। उनके पास अग्रेजी विभाग के अध्‍यक्ष पंडित अमर नाथ झा का एक पत्र की आया, जिनसे वे अपेक्षा रखते थे कि वे उन्‍हे यूनिवर्सिटी में अध्‍यापन का अवसर देगें। झा साहब ने पत्र में लिखा था कि विभाग में एक अध्यापक के अवकाश ग्रहण करने से एक अस्‍थाई स्‍थान रिक्‍त है। क्‍या आप उसमें 125 रूपये प्रति माह वेतन पर काम करना चाहेगें? यदि आप इच्छुक हो तो शीघ्र विभागाध्‍यक्ष से मिलें। यह पत्र उन्‍हे देख कर सहसा उन्‍हे विश्‍वास नही हुआ।वह झा साहब से मिलने गये, तो उन्‍होने सलाह दिया कि मै अग्रवाल कालेज का स्‍थाई अध्‍यापन छोड़कर, इलाहाबाद विवि की अस्‍थाई अध्‍यापन स्‍वीकार करूँ। बच्‍चन जी कहते है कि मुझे अपनी क्षमता का इतना विश्‍वास न था जितनी कि झा साहब कि निर्णायक बुद्धि का। उन्‍होने मुझे एक चेतावनी भी दी कि क्‍लास में कभी मै अपनी कविताएं न सुनाऊँ और विश्‍वविद्यालय में पढ़ाई के समय अपने को हिन्‍दी का कवि नही अंग्रेजी का लेक्चरर समझूं।उनके मन में हमेशा एक बात कौधती रहती थी कि शायद मै अध्‍यापक न होता तो एक अच्‍छा कवि होता किन्‍तु कभी कहते थे कि मै एक कवि न होता तो एक अच्‍छा अध्‍यापक होता। वे अपने बारे में कहते है कि मेरी कविता को प्रेमियों का दल कभी एक बुरा कवि नही कहेगा। और मेरे विद्यार्थियों की जमात एक बुरा अध्‍यापक। उन्‍होने अपने अध्‍यापक को कभी भी कवि पर हावी नही होने दिया।अग्रेजी विभाग में अपने स्‍वागत के विषय में कहते है कि शायद ही कुछ हुआ हो किन्‍तु एक जिक्र अवश्‍य करते है। उन दिनों अग्रेंजी विभाग में रघुपति सहाय ‘फिराक’ हुआ करते थे, जो उँर्दू के साहित्‍यकार थे। और उन दिनों काफी चर्चा हुआ करती थी कि अंग्रेजी विभाग में उँर्दू के शायर तो थे ही अब हिन्‍दी के कवि भी आ गये।
 

और यूनिवर्सिटी के दरवाजे सदा के लिये बंद हो गये(बच्चन की जन्मशती पर विशेष)

By तेज़ धार
बात उन दिनों की जब एमए का परिणाम निकला था, उन्हे द्वितीय श्रेणी मिली थी। उस वर्ष किसी को भी प्रथम श्रेणी नही मिली थी। जब वे साहस कर विभागाध्‍यक्ष श्री अमरनाथ झा के पास पहुँचे तो उन्‍होने इनसे पूछा कि आगे क्‍या करने का विचार है। बच्चन जी ने कहा कि मेरा विचार तो यूनिवर्सिटी में रह कर अध्‍यापन कार्य करने का था किन्‍तु .... । झा साहब कि ओर से कोई उत्‍तर न पा कर फिर अपने वाक्‍य को सम्‍भाल कर कहा कि अब किसी इंटर या हाई स्‍कूल में नौकरी करनी पड़ेगी। इस पर झा साहब के ये वाक्‍य उन पर पहाड़ की तरह टूट पडें कि स्‍थाईत्‍व के लिये एलटी या बीटी कर लेना। जो कुछ भी झा साहब की ओर से अपेक्षा थी उनके इस उत्‍तर से समाप्‍त हो गया। उन्हे लगा कि अब मेरे लिये यूनिवर्सिटी के दरवाजे सदा के लिये बंद हो गये। इसी के साथ उन्‍होने उनसे विदा मांगी। मन उदास हो गया पर उदासी में ही शायद मन कुठ विनोद के साधन खोजनेकी ओर प्रवृत्‍त हो चुका था। और उन्‍हे अपने एक मित्र की लिमरिक याद आई, जो उनके मित्र ने झा साहब से यूनिवर्सिटी में जगह मॉंग मॉंग कर हार जाने के बाद लिखी थी और बच्‍चन जी भी उसी को गाते हुऐ विश्‍वविद्यालय से विदा लिये।
There was a man called A Jha;
He had a very heavy Bheja;
He was a great snob,
When you asked him for job,He dolesomely uttered, ‘Achchha dekha jayega.’
 

सौ बरस के बूढे के रूप में याद किये जाने के विरुद्ध!!

By तेज़ धार
मैं फिर कहता हूँ,

फांसी के तख्ते पर चढाये जाने के पचहत्तर बरस बाद भी,

'क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है',



वह बम,

जो मैंने असेम्बली में फेंका था,

उसका धमाका सुनने वालों में अब शायद ही कोई बचा हो,



लेकिन वह सिर्फ एक बम नहीं,

एक विचार था,और, विचार सिर्फ सुने जाने के लिए नहीं होते



माना की यह मेरे जनम का सौवां बरस है,

लेकिन मेरे प्यारों,

मुझे सिर्फ सौ बरस के बूढों मे मत ढूंढो



वे तेईस बरस कुछ महीने,

जो मैंने एक विचार बनने की प्रक्रिया मे जिए,

वे इन सौ बरसों मे कहीं खो गए

खोज सको तो खोजो



वे तेईस बरस

आज भी मिल जाएँ कहीं, किसी हालत में ,

किन्हीं नौ जवानों में ,



तो उन्हें मेरा सलाम कहना,

और उनका साथ देना...

और अपनी उम्र पर गर्व करने वाले बूढों से कहना,

अपने बुढापे का "गौरव" उन पर न्योछावर कर दें




(भगत सिंह २० वर्ष की अवस्था मे)

देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्तव्य है की सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निर्माण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और और मनुष्य के द्वारा मनुष्य तथा राष्ट्र द्वारा दुसरे राष्ट्र का शोषण, जो साम्राज्यशाही के नाम से विख्यात हैं, समाप्त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिल पाना असंभव है और तब तक युद्धों को समाप्त कर विश्व शांति के युग का प्रादुर्भाव करने की सारी बातें महज ढोंग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं।

 

भगत सिंह

By तेज़ धार
भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी सज़ा मिलेगी फांसी की.
यदि जनता की बात करोगे तुम गद्दार कहलाओगे,
बम्ब-संब की छोडो, भाषण दिया की पकडे जाओगे.
निकला है कानून नया, चुटकी बजते ही बंध जाओगे.
न्याय-अदालत की मत पूछो सीधे "मुक्ति" पाओगे.
मत समझो की पूजो जाओगे, क्यूंकि लड़े थे दुश्मन से.
सत ऐसी आँख लड़ी है अब दिल्ली की लंदन से.
कॉमनवेल्थ कुटुंब देश को खींच रहा है मंतर से.
प्रेम विभोर हुए नेतागण रस बरसा है अम्बर से.


भगत सिंह (सितम्बर २८, १९०७-मार्च २३, १९३१)

अब जबकि संघ लोक सेवा आयोग ने भी अपने सामान्य अध्ययन मुख्य परीक्षा मे भगत सिंह पर १५ अंकों का सवाल पुछा है तो प्रतियोगी परीक्षार्थी होने के नाते मेरा भी कुछ विचार करने का दायित्व बनता ही है. अतः मैं इस माह भगत सिंह पर ही प्रकाश डालूँगा की महज २३ साल कुछ महीने में उस आजादी के परमवीर योद्धा ने इस भारतवर्ष को क्या कुछ दिया है.जिसने कहा की क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है. ऐसे विचारवान, चिंतन, मनन करने वाले भगत सिंह को शत शत नमन.किन्‍तु आज का वातावरण है कि देश की सरकार स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानियों को घोषित कर रही है, तो कौन मॉं चाहेगी कि उसका लाल भगत सिंह बनें? कौन पिता चाहेगा कि उनका पुत्र देश की रक्षा में शहीद हो, तब उसे आंतकवादी ही कहा जायेगा।
क्रांति की अग्निशिखायें कभी नहीं बुझती,वे आज भी जिंदा हैं.हम जीते थे, और हम फिर जीतेंगे..





भवदीय,
गौरव त्रिपाठी